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– एक पत्रकार की जीवन की वास्तविकता
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है, माना गया है। परंतु आज यह बात कितनी सार्थक है…?
खैर! बात पत्रकार की करें तो पत्रकार की जिंदगी बहुत पेचीदा होती है। पत्रकार के लिए हर पहलू को उजागर कर स्पष्टीकरण देना किसी वकालत से भी अधिक कठिन कार्य है। स्वार्थपन की कोई संभावना पत्रकार के लिए कोई मायने नहीं रखती। यदि कोई पत्रकार, पत्रकार ही है तो उसकी हालत उस सांप की भांति है जिसके मुंह में छिपकली आ जाती है। जब पत्रकार दिल की सुनता है तो वो पत्रकार ईमानदार कहलाता है, पेट की सुनते ही उस पर लांछन लगने लगते हैं।
यद्यपि पत्रकार लोकतंत्र का स्तंभ है तो उसकी जिंदगी आसान तो कदापि नही हो सकती। क्योंकि लोकतंत्र का साधारण शब्दों में मतलब ही “जितने मुंह उतनी बातें हैं।” सही मायनों में पत्रकार की जिंदगी बहुत ही चुनौती पूर्ण होती है। यदि पत्रकार की स्पष्टवादिता में कोई पहलू छूट जाता है और अन्याय की गुंजाइश बढ़ जाती है तो पत्रकार स्वयं ही, स्वयं को माफ नही कर पाता।
परंतु कुछ पत्रकार स्वयं को माफ भी करना जानते हैं और वाहवाही लूटना भी। और कुछ अपनी स्पष्टवादिता के लिए नुकसान भी उठाते हैं, परंतु अपने निश्चय पर अडिग रहकर स्पष्टवादिता को नहीं छोड़ते।
जहां तक हमारी सोच भी नही पहुंच सकती उन लोगो के निर्णय को हम पांचवी पास गलत साबित कर देते हैं। जी हां! पत्रकारिता का अवार्ड देने वाले कोई मामूली लोग तो होते नही हैं।